प्राण
 

 

      अपने अनुभव से ऐसा लगता हे कि 'जीवन-शक्ति' और शरीर में गतिविधि पैदा करने वाली 'शक्ति' ऊपरी पेट के पिछले हिस्से की गहराई में स्थित है

 

हां, उस जगह सृजनात्मक प्राण-शक्ति का आसन है ।

१५ दिसम्बर, १९३३

 

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       प्राण हमारी शक्ति, ऊर्जा, उत्साह, समर्थ क्रियाशीलता का आसन है । उसे विधिवत् शिक्षण की आवश्यकता है ।

 

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      प्राण-चक्र : आवेगमय और बलवान्, वह नियन्त्रण की मांग करता है ।

 

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      प्राण उत्साह देता है लेकिन प्राण स्वभाव से अस्थिर होता है और हमेशा नयी-नयी चीजों की मांग करता रहता है । जब तक कि वह परिवर्तित होकर भगवान् का आज्ञाकारी सेवक न बन जाये, चीजें हमेशा घटती बढ़ती रहती हैं ।

 

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       प्राणिक अभिव्यक्ति की शक्ति तभी उपयोगी होती है जब प्राण परिवर्तित हो जाये ।

 

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       प्राण का परिवर्तन : उत्साहपूर्ण और सहज, वह अपने- आपको अबाध रूप में देता है ।

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      जिस दिन प्राण परिवर्तित हो जायेगा उस दिन उसके पास देने के लिए बहुत कुछ होगा ।

 

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       प्राण में उदारता अपने- आपको अबाध रूप से देती है ।

 

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        प्राण में बल अपने सौन्दर्य और अपनी शक्ति को दिखाना पसन्द करता है ।

 

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        प्राण की स्वीकृति : स्नेही, मुस्कुराती हुई बहुत सद्‌भावना के साथ क्रिया करने को हमेशा तत्पर ।

 

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       प्राणिक उत्सर्ग: आनन्ददायक रूप से विनम्र और सुगन्धित, यह अपनी ओर ध्यान खींचना चाहे बिना जीवन की ओर मुस्कुराता है ।

 

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        अविरत प्राण-शक्ति : ऐसी प्राण-शक्ति जो सर्वांगीण उत्सर्ग पर निर्भर है ।

 

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         प्राण में स्थिरता : परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण परिणामों में से एक ।

 

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         प्राणिक पारदर्शिता : परिवर्तन के लिए अनिवार्य ।

 

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          प्राणिक धैर्य : समस्त प्रगति के लिए अनिवार्य ।

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       प्राणिक प्रगति : 'भागवत संकल्प' के चारों ओर व्यवस्थापन ओर इस 'संकल्प' के प्रति उत्तरोत्तर समर्पण ।

 

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       परम उपस्थिति द्वारा शासित प्राण : 'भागवत उपस्थिति' द्वारा शान्त और नियन्त्रित की गयी प्राण-शक्ति

 

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       प्राण में रचना करने की क्षमता : सहज लेकिन हमेशा प्रसन्न नहीं होती, उस पर शासन करने की आवश्यकता होती है ।

 

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       प्राण में निष्कपट सरलता : प्राण के लिए जिन चीजों को पाना सबसे अधिक कठिन है उनमें से एक ।

 

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        भगवान् पर भरोसा : आवेगशील प्राण के लिए बहुत अनिवार्य ।

 

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        भगवान् पर प्राणिक भरोसा : साहस और ऊर्जा से भरपूर अब और किसी चीज से नहीं डरता ।

 

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         जड़- भौतिक में प्राणिक आनन्द : स्वार्थपरता को लुप्त करने का पारितोषिक ।

 

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         प्राण में शान्ति : कामनाओं को लुप्त करने का परिणाम ।

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         प्राण में नीरवता : आन्तरिक शान्ति के लिए शक्तिशाली सहायता ।

 

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         प्राण में सच्ची निष्कपटता : सिद्धि का निश्चित मार्ग ।

 

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         प्राण में प्रकाश : लम्बे मार्ग पर पहले चरणों में से एक ।

 

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         प्राण का आध्यात्मिक जागरण : वह शिखरों को पाने की आशा में उनकी ओर उड़ान भरता है ।

 

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          प्राण में छोटी-सी विजय भी महान् परिणाम ला सकती है ।

 

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          प्राण को समस्वर करना श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक कार्य है ।

          वह सुखी है जो इसे चरितार्थ कर ले ।

 

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           में लड़ते हुए अहंकारों की इस दुनिया से तंग आ गया हूं ।

 

यह स्वाभाविक है : मानव प्राण का संसार कुरूप संसार है, उसे बदलने की बहुत आवश्यकता है ।

 

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          कोई गम्भीर वस्तु कर सकने से पहले अहंकारमयी प्राणिक प्रतिक्रियाओं को विलीन होना होगा ।

३ मई, १९७१

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      जीवन में अभिव्यक्त होती हुई प्राणिक इच्छा : यह बहुधा सबसे बड़े उपद्रवों का कारण होती है ।

 

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       जब तक नियन्त्रित न की जाये प्राणिक संवेदना हद से ज्यादा होती है ।

 

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       में बहुत सर्वदेनशील बन गया हूं और जरा- जरा से कारणों से भी परेशान हो उठता हूं

 

ये प्राणिक क्षुब्धताएं हैं जो साधना के मार्ग में प्रकट होती हैं, इनको निकाल बाहर करना होगा । उन्हें स्वाभाविक गतिविधियों की तरह न मानो जिन्हें दूसरों के गलत कार्य न्यायसंगत ठहराते हैं और जिनका बने रहना तब तक अवश्यम्भावी है जब तक बाहरी कारण बना रहे । सच्चा कारण आन्तरिक है और यौगिक अनुशासन, जागरूकता, अनासक्ति व अचंचल लेकिन नियमित त्याग द्वारा इनसे छुटकारा मिल सकता है ।

 

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     रही बात प्राण के परिवर्तन की, जब तुम अपनी उच्चतर चेतना में बने रहने की आदत बना लोगे तो यह अपने-आप आ जायेगा; वहां ये सब नगण्य चीजें और गतिविधियां निरर्थक होती हैं ।

 

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      व्यक्ति अन्धकारमय प्राण को कैसे जीत सकता है ? या अन्धकारमय प्राण को आलोकमय प्राण में बदलना कैसे सम्भव है ?

 

      प्राण के समर्पण द्वारा, प्रकाश के प्रति उद्‌घाटन ओर चेतना की वृद्धि द्वारा ।

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      प्राण में उचित वृत्ति :

      आत्म-विश्वास-

      मानसिक और प्राणिक अचंचल श्रद्धा-

      अपनी सिद्धि में और भागवत सहायता में श्रद्धा ।

 

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